आलोचना >> रंग विमर्श रंग विमर्शज्योतिष जोशी
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‘रंग विमर्श’ हिन्दी नाटक और रंगमंच के ज्वलन्त प्रश्नों पर जीवन्त बहस की पुस्तक है जो हिन्दी नाट्य परिदृश्य में व्याप्त उदासीनता को तोड़ती है। पुस्तक में इस प्रश्न पर विमर्श देखा जा सकता है कि हिन्दी रंगमंच को समग्रता देना कितना आवश्यक है और कितना सम्भव। यह विचित्र ही है कि इतने बड़े हिन्दी क्षेत्र को लेकर कभी भी गम्भीरता से विचार करने की जरूरत महसूस नहीं की गई। हमेशा इस पट्टी को उपनिवेश बनाकर ही खुश हो लिया गया, चाहे वह राजनैतिक हो या धार्मिक, संस्कृतिक हो या कुछ और, रहा वह हमेशा उपनिवेश ही। हिन्दी रंगमंच आज भी उपनिवेश ही है जिसे अनुवाद, रूपान्तरण और विजातीय नाट्य–बोध का उपनिवेश कह सकते हैं। अगर हमें इस उपनिवेश से मुक्ति चाहिए तो एक समग्र हिन्दी रंगमंच को खड़ा करना होगा जो हिन्दी क्षेत्र की नाट्य–युक्तियों, मुहावरों और नाट्य–पद्धतियों को शामिल किये बिना सम्भव नहीं है। यह पुस्तक ऐसे उत्तेजक प्रश्नों से मुठभेड़ करती है और रंगकर्मियों का आह्वान करती है कि वे नये सिरे से इस गम्भीर सांस्कृतिक प्रश्न पर विचार करें। पुस्तक में ऐसे अनेक निबंध हैं जो नाट्यालोचन को व्यावहारिक निकष देते हैं और नाट्य को हमारे सांस्कृतिक जीवन से जोड़कर देखते हैं। कहना न होगा कि रंगकर्म को गम्भीरता से लेने वाले लोगों के लिए यह पुस्तक लाभकर प्रतीत होगी।
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